इस कविता की भूमिका में बस इतना कहुगा, की उन चंद गद्दार वर्दी वालो की वजह से ही हमारे देश की वर्दी पर लोगो को भरोसा नहीं रहा, ये कविता उस आक्रोश में लिखी गयी है, जब एक पुलिस कर्मचारी एक बुजुर्ग नागरिक को बेरहमी रे पिट रहा था.....!!
ये किसी वर्दी पहली यार,
घुस खाने को हर पल तैयार,
भोली जनता को सताते है,
और जो करता है विरोध उसपे लाठी चलवाते है,
ये कैसी वर्दी, ये कैसी वर्दी.....!!
की जो भी पहने खाकी वर्दी पहन बड़ा इतराये,
खुद को राजा समझ के जनता पर वो राज चलाये,
वर्दी वालो के रंग अनेक,
नेताओ के चमचे है हर एक,
जनता पे रोप जमाते है,
और जनता मुह खोले तो तुरंत हत्कड़ी लगाते है,
ये कैसी वर्दी, ये कैसी वर्दी.....!!
ये कैसी वर्दी पहनी यार,
घुस खाने को है तैयार.....!!
की जो वर्दी की इज्जत आदर सम्मान नहीं कर पाए,
क्यों न उसके तन से हम वर्दी की लाज बचाए,
गुंडों की रक्षा करते हाय,
गरीबो को ये खूब सताय,
निर्दोषी को दोषी ठहराय
और दोषी के साथ रात भर जश्न-ए-जाम मनाये
ये कैसी वर्दी, ये केसी वर्दी.....!!
ये कैसी वर्दी पहनी यार,
घुस खाने को है तैयार.....!!
कल की ताजी घटना तुम सबको में आज सुनाऊं,
उस दो कौड़ी के अफसर की करतुते में बताऊँ,
बुजुर्गों पर वो हाथ उठाये,
चाबी मोबाइल वो सबको छुड़ाये,
गालियों से करते वो बात,
और रिश्वत ले लेकर जनता के किये बुरे हालात,
ये कैसी वर्दी, ये केसी वर्दी.....!!
ये कैसी वर्दी पहनी यार,
घुस खाने को है तैयार......!!
ये वर्दी है आन बान और शान मेरे भारत की,
छुपी हुई है इसमें ही पहचान मेरे भारत की,
गरीबो की हिम्मत इससे,
अमीरी भी डरती इससे,
चले तो गद्दार कांप जाये
और नेता भी वर्दी के सम्मान में शीश झुकाये,
है वर्दी ऐसी, है वर्दी ऐसी.....!!
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