मेरे गाँव का मेला उत्सव

मेरे गाँव हर साल की तरह इस साल भी मेला लगा था, हर साल मकर संक्रांति के पावन पर्व पर हमारे गांव में मेले का उत्सव होता है, पौष माह के अंत और माघ माह की सुरुवात में यह मेला लगता है, सर्दियों के दिनों में मेले का मजा ही कुछ और रहता है, हमारे गांव में एक बरसो पुराना कुंड है, सूरजकुंड जहा एक बहुत पुराना मंदिर है, जहा से सुरुवात होती है मेले की, दूसरी और बाबा चाँद सा वाली की दरगाह है, हर साल 13 जनवरी को बाबा की दरगाह पर चादर चढ़ती है, पुरे हर्ष-ओ-उल्लाश से हमारे गांव में हिन्दू और मुस्लिम सभी मिल कर चादर चढ़ाते है,
चलो अब में अपने गांव के मेले का वर्णन करता हूँ, मेरे गाँव का नाम है सागौर, मेले का आयोजन सभी कमिटी के सदस्य मिल कर करते है, सूरज कुंड और बाबा चाँद सा वाली की छात्र छाया में इस मेले का आयोजन होता है, मेले में सभी समाज, जाति, धर्म के लोग आते है, मेला सुबह से शुरू हो जाता है और चढ़ते चढ़ते लोगो की संख्या बढ़ती जाती है, मेले में जिधर देखो उधर श्रद्धालु दिखाई पड़ते है, गांव के मेले की एक नहीं अनेक खाशियत होती है, मेला परिसर में पाव रखते ही फ़ोकट का पावडर लगने लगता है, अरे भाई खेत की उड़त धूल थोड़ी देखती है कि कोन बहुराष्ट्रीय और राष्ट्रिय कंपनी का पावडर लगता है, यहाँ तो आपको सूट करे या न करे एक ही पाउडर लगेगा चाहे आप अपने चेहरे को कितना ही बचाने की कोशिश करें। बच नहीं पाएगें। इधर धूल उडती है उधर चाट बन रही होती है। मैंने देखा कि चाट बनाने वाला जितने मसाले नहीं मिला पाता होगा उतनी उसमें धरती से उडी धूल मिल जाती है। फिर भी लोग मजे से खाते हैं और बच्चे तो अगर नहीं दिलाई तो रोने लगते हैं। और लड़कियां तो पानी पूरी इतने मजे से कहती है कि पूछो मत। आस पास के गांव के लोग यहाँ आते है और पार्किंग की भी बहुत अच्छी व्यवस्था रहती है, पुलिस कर्मियों की सहायता से रेडियो रूम भी होता है, अगर कोई खो जाए तो अनाउन्स करके उसे व्यवस्थित जगह बुला लिया जाता था।
इस साल का अनुभव कुछ अलग ही था, पिछले बीते सालों को याद किया तब समझ आया की कितना कुछ बदल गया है, पहले मेला घूमने के लिए जेब में पैसे नहीं होते थे, फिर भी बहुत हर्ष-ओ-उल्लाश के साथ मेले का लुफ्त उठाते थे, लेकिन आज ऐसा नहीं है, आज जेब भरी है फिर भी वो आनंद नहीं है जो बचपन में हुआ करता था। उन दिनों की यादे भी एक पल में तजा हो गयी जब बाँसुरी वाले को देखा तो, एक साल की बात है मेले में मम्मी पापा के साथ गया था, और उस साल बाँसुरी लेने की जिद्दी पकड़ी थी, वेसे मुझे बाँसुरी बजाना तो नहीं आता था, पर फिर भी मुझे लेना था। बस यही तो बचपन था। बचपन की वो याद भी ताजा हो गयी जब स्टूडियो सजाये फोटो खीचने वाले की दुकान पर नजर गयी, अच्छी तरह से याद मुझे जब में 10 साल का था तो परिवार के साथ मेले में गया था और दीदी और भाई के साथ झूले पर बैठ कर फोटो खिंचवाई थी, आज कल तो सेल्फी का जमाना है पर उस वक़्त की बात ही कुछ और थी....!!
गांव के मेले में सभी प्रकार की दुकानों का प्रबंध रहता है। विशेष रहता है महिलाओं के श्रृंगार की सामाग्री का। महिलाओं की सौदर्य प्रसाधनों की दुकानों का आयोजन अलग सेक्शन में होता है। जहा पुरुषों का कोई काम नहीं होता है पर फिर भी सबसे ज्यादा चक्कर वही के लगाते है।
जैसे जैसे साँझ ढालने लगती है हर जगह चिराग जलने लगते है, और मेले का रंग निखारने लगता है, सर्द ठण्ड में स्वेटर जैकेट उंबकी टोपी और मफलर पहन कर मेला घूमने का मजा ही कुछ और रहता है, और फिर सबको इंतेजार रहता है कवी सम्मलेन प्रोग्राम का, और क़व्वाली का। एक तरफ सूरज कुंड में कवी सम्मलेन का प्रोग्राम होता है तो, एक तरफ क़व्वाली का प्रोग्राम। दोनों ही प्रोग्राम मुझे पसंद है। मेले के आकर्षण कार्यक्रम की तैयारियां जोरों सोरो से चलती है। दूर दूर स्थानों से मशहूर कवी और क़व्वाल आते है सर्द रात की रौनक बढ़ाने के लिए। जब संचालक जी स्टेज पर कवियोँ का परिचय करवाते है तो सच मनो अपने अंदर का कवी भी बहार आने को करता है, मन ही मन सोच में डूबता जाता हूँ, क्या में भी कभी इसी तरह स्टेज की शान बन पाउँगा, क्या मेरे मन के भावो को भी में सबसे साँझ कर पाउँगा, क्या में भी अभी काव्यपाठ से सबका दिल जीत पाउँगा। बहुत सी बातों को दिल में दबाये, अनेक सपनो को आँखों में सजाएं, अपने कवी को अपने दिल में दबाये रखता हूँ। और रात भर कवी सम्मलेन का लुफ्त उठता हूँ।
इस साल किसी करनवास कवी सम्मलेन का आयोजन नहीं हुआ है....! हर साल की तरह इस साल भी में गया था। लेकिन जब पता चला की इस बार कवी सम्मलेन का आयोजन नहीं है..! तब फिर में क़व्वाली के प्रोग्राम में जा कर बैठ गया, कल रात अज़ीज़ नाज और सबनम की गजलो और शेरो ने जो महफ़िल सजाई की महफ़िल में बैठे सभी ठस से मास नहीं हुए। मेने भी सुबह 4 बजे तक सुनी, फिर घर की तरफ चल दिया..... और बस एक नाथ गुनगुना रहा था पुरे रस्ते भर... आप सबको भी सुनाता हूं......

मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
महम्मद मुस्तफा आये बहारो पर बहार आयी,
जमीं को चूमने जन्नत से खुशबु बार बार आयी
वो आये तो मनादि हो गयी सायिम ज़माने में,
बहार आयी बहार आयी बहारों पर बहार आयी......!!
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
नसीब चमके है फर्शियों के,
के अर्श के चाँद आ रहे हैं,
जलक से जिनकी फलक है रोशन,
वो शम्स तशरीफ़ ला रहे हैं......!!
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
निसार तेरी चहल पहल पे,
हज़ारों ईदें आये रबीउल अव्वल,
सिवाय इब्लीस के जहाँ में,
सभी तो खुशियां माना रहे है,
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
शबे विलादत में सब मुस्लमान,
न क्यों करें जानो माल क़ुर्बान,
अबु लहब जैसे सख्त काफिर,
खुसी में जब फैज़ पा रहे हैं.......!!
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
ज़माने भर में ये क़ायदा है,
के जिस का खाना उसी का गाना,
तो नेमतें जिनकी खा रहे है,
उन्ही का हम गीत गा रहे है......!!
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
जो कब्र में अपनी उनको पाऊं,
पकड़ के दमन मचल ही जाऊँ,
जो दिल में रह के छुपे थे मुझसे,
वो आज जलवा दिखा रहे है.....!!
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,
मरहबा या मुस्तफा सल्ले अला,

सच में बहुत ही खूब नाथ थी सुन कर मजा आ गया, तो दोस्तों ये था मेरे गाँव का मेला उत्सव.....!!

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